कबीर दास: अपने जीवन में सफल तो हर कोई होना चाहता है, हर कोई चाहता है की इस दुनिया में उसका नाम हो वो अपने जीवन को सुखमय रूप से जिए और इसके लिए सभी लोग अपने बचपन से ही मेहनत करने लगते है, हालांकि बचपन में इतनी समझदारी तो नहीं होती है की जीवन में क्या सही है और क्या गलत मगर बच्चों के माता पिता बचपन से ही उनको पाठशाला भेजते हैं ताकि वो बड़े होकर एक सफल मनुष्य बन सके परन्तु जीवन में सफल होने के लिए सिर्फ पढ़ाई ही काफी नहीं होती है जीवन को समझना भी आवश्यक होता है। जीवन में क्या सही है और क्या गलत है इसका भेद भी पता होना जरुरी होता है परन्तु ये सारी बाते सिर्फ साधाहरण पढ़ाई से मालुम नहीं चल पाती है, इसके लिए हमें दूसरों के जीवन से सीखने की भी आवश्यकता होती है जिससे हम भी वो सब कर सकें जो उनने किया है और सफल हुए हैं या फिर हम वो सब न करें जिनके कारण वो असफल हुए हैं। इसी लिए आज हम आपको संत कबीर दास के 12 ऐसे दोहे बताने जा रहे है जिन्हें अगर आप अच्छे से पढ़ लेते है और अपने जीवन में उतार लेते हैं तो एक दिन जरूर ही आप भी अपने जीवन में सफल हो जाएंगे। हम आपको कबीर जी के दोहे तो बताएंगे ही साथ में उन दोहों का गहराई से अर्थ भी समझाएंगे।
तो बने रहिये आप The Hindustan Today के साथ।
दोहा-1> जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
अर्थ:– कबीर दास जी ने इस दोहे के माध्यम से यह बताया है की मनुष्य को हर मनुष्य का ज्ञान लेना चाहिए उसके ज्ञान का सम्मान करना चाहिए, उससे उसकी जाती नहीं पूछनी चाहिए की वो किस जात, किस धर्म, किस पंथ का है क्योकि ज्ञान सर्वश्रेष्ठ होता है। कबीर दास जी अपनी बात में जोर देकर आगे यह बता रहे है की जिस प्रकार तलवार का मोल किया जाता है म्यान(जिसके अंदर तलवार राखी जाती है) को छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार मनुष्य का ज्ञान ग्रहण करना चाहिए न की उसकी जाती, धर्म आदि के विषय में उलझना चाहिए।
दोहा- 2> माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूगी तोहे।।
अर्थ:– इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी जीवन की असली सच्चाई बताने का प्रयास कर रहे है। कबीर दास जी कहते हैं की मिट्टी, कुम्हार से कहती है, कि आज तू मुझे पैरों तले रोंद (कुचल) रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा कि मैं तुझे रोंदूंगी अर्थात अपने में मिला लुंगी। दरअसल यहाँ पर कबीर जी ने मनुष्य को उसके जीवन के अंत समय की याद दिलाई है और यह बताने का प्रयास किया है की मनुष्य को जीवन में साधाहरण तरीके से रहना चाहिए ज्यादा उछलना नहीं चाहिए क्योंकि जब तक मनुष्य के शरीर में ताकत है तब तक ही वो कुछ भी कर सकता है और फिर एक दिन ऐसा आता है की मनुष्य कुछ करने योग्य नहीं रहता है वह मिट्टी में मिल जाता है।
दोहा- 3> बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर।।
अर्थ:- इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी ने यह बताया है की खजूर के पेड़ की भाँति बड़े होने का कोई फायदा नहीं है, क्योंकि इससे न तो यात्रियों को छाया मिलती है, न इसके फल आसानी से तोड़े जा सकते हैं | आर्थात बड़प्पन के प्रदर्शन मात्र से किसी का लाभ नहीं होता | यह तो दोहे का अर्थ है वास्तव में इस दोहे के माध्यम से कबीर जी ने बहुत बड़ा सन्देश देने की कोशिश की है की मनुष्य को भले वो कितना भी आमिर हो जाए या फिर किसी भी विषय में वो कितना भी महारथ हांसिल कर ले उसे झुक कर ही रहना चाहिए नहीं तो उसकी कोई पूँछ नहीं होती है जब इस तरह के मनुष्य से किसी को कोई फ़ायदा ही नहीं होता है तो इतना बड़ा होने से मतलब ही क्या है।
दोहा- 4> निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
अर्थ:– इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी ने यह कहा है की जो लोग आपकी निंदा करते है, उन्हें अपने पास ही रखा चाहिए क्योंकि वह बिना पानी और साबुन के ही आपका स्वाभाव निर्मल कर देता है। कहने का तात्पर्य यह है की जो लोग आपकी बुराई करते रहते है उनको हमेशा ही अपने साथ रखना चाहिए क्योंकि वो बिन पैसे के ही आपकी गलती आपको बताते रहते है और आप उन गलतियों में सुधार करके अपने जीवन को सार्थक कर सकते है वो भी मुफ्त में।
दोहा- 5> दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।।
अर्थ:– इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी ने यह कहा है की प्रत्येक मनुष्य के जीवन में जब दुःख आता है तब वो प्रभु को सिमरने (याद करने ) लगता है और जब सुख आता है तब वो प्रभु को भूल जाता है। आगे कबीर जी कहते हैं की यदि मनुष्य सुखमें भी सामान भाव से प्रभु को सिमरने (याद करने ) लगे तो दुःख होगा ही नहीं।
दोहा- 6> बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
अर्थ:– इस दोहे में कबीर दास जी कहते है की बोली बहुत अनमोल होती है जो कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही शब्दों को मुंह से बाहर आने देता है.
कहने तात्पर्य यह है की शब्दों का जीवन में बहुत महत्व है और इसी लिए मनुष्य को एक-एक शब्द तौल कर यानिकि सोच समझ कर बोलना चाहिए
दोहा- 7> हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।।
अर्थ:– कबीर दास जी कहते हैं कि हिन्दू कहता है की मुझे राम प्यारा है और तुर्क (मुस्लिम) कहता है की मुझे रहमान प्यारा है।
इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, लेकिन मरते दम तक दोनों में से कोई भी सच को न जान पाया।
कहने का तात्पर्य यह है की मनुष्य को धर्म,जाती, पंथ आदि के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि इन सब से केवल समय ही बर्बाद होता है किसी को भी कुछ भी हासिल नहीं होता है।
दोहा- 8> अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।।
अर्थ:– कबीर दास जी ने इस दोहे के माध्यम से कहा है की मनुष्य को न तो अधिक बोलना चाहिए और न ही अधिक चुप रहना चाहिए जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है अतः कबीर जी यहाँ पर यह कहना चाह रहे है की मनुष्य को किसी भी कार्य की अति नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह जीवन के लिए सही नहीं होती है
दोहा- 9> गुरु गोविंद दोउ खड़े, काको लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंन्द दियो बताय।।
अर्थ:– कबीर जी इस दोहे के माध्यम से यह कह रहे है की गुरू(शिक्षक ) और गोबिंद (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए? गुरू को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरू के चरणों में शीश झुकाना उत्तम है जिनकी कृपा से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। अर्थात गुरु और गोविन्द में गुरु अधिक श्रेष्ठ है क्योंकि अगर उनकी कृपा बनी रही तो गोविन्द के दर्शन कभी भी हो सकते हैं।
दोहा- 10> करता था सो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहां से खाए।।
अर्थ:– कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से कहते हैं की हे मनुष्य जब तू बुरे कर्म करता था तब तूने ऐसा कुकर्म क्यों किये और अब तूने बुरे कर्म कर लिए है तो अब फिर पछता क्यों रहा है जब तूने खुद ही बमूर अर्थात कांटो वाला पेड़ बोया है तो तुझे मीठे आम खाने को कहाँ से मिलेंगे? कहने का अर्थ यह है की मनुष्य को बुरे कर्म नहीं करने चाहिए नही तो बाद में उसका विनाश हो जाता है और फिर रोने से कोई भी फ़ायदा नहीं होता है
दोहा- 11> माया मरी न मन मरा, मर मर गया शरीर।
आषा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।।
अर्थ:- कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से कहते हैं की मनुष्य की माया अर्थात लालच और मन अर्थात लालसा कभी नहीं मरती है बार-बार मनुष्य का शरीर मरता है। मनुष्य की आशा और तृष्णा नहीं मरती है ऐसा कबीर जी कह कर गए हैं। इस दोहे का मूल तात्पर्य यह है की मनुष्य का शरीर बार मरता है परन्तु मन में रहने वाले विकार नहीं मरते है इसी लिए मनुष्य जीवन में सफल नहीं हो पता है अर्थात अगर जीवन में सफल होना है तो पहले अपने मन के विकारों को नष्ट करना आवश्यक है।
दोहा- 12> बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
अर्थ:- कबीर दास जी कहते हैं कि मैं इस संसार में बुरा देखने निकला तो मुझे कोई भी बुरा नहीं मिला और जब मैंने खुद के अंदर देखा तो सबसे बुरा मैं ही निकला अर्थात अगर हम लोगों की बुराई देखेंगे तो हमें कोई भी बुरा नहीं मिलेगा और अगर हम अपने अंदर झांक कर देखेंगे तो खुद के अंदर ही सारी बुराई पाएंगे अतः जीवन में खुद को सुधरने की जरुरत है दुनिया को नहीं।
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