shah bano

कौन थी शाह बनो जिसे हारने के लिए राजीव गाँधी ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया था।

आज के इस पोस्ट में हम बात करने वाले हैं शाहबानो केस की यह वह केस है जो आए दिन सुनने को मिलता रहता है हालाँकि तीन तलाक क़ानून के बाद इसकी गूँज कम हो गई है।

सबसे पहले यह बात समझने की है की की शाह बनो केस और शायरा बनो केस दोनों ही अलग-अलग केस हैं इसी लिए आप इन दोनों को एक केस मत समझियेगा और आज हम बात करने वाले है शाह बनो केस के बारे में न कि शायरा बनो केस के बारे में।

कौन थी शाह बनो जिसे हारने के लिए राजीव गाँधी ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदल दिया था।
Shah Bano(शाह बनो)

शाह बनो एक मुस्लिम महिला थीं जो मध्यप्रदेश के इंदौर जिले की रहने वाली थी उनके 5 बच्चे थे जिनमें 3 बेटे और 2 बेटियां थीं
उनकी शादी सन 1932 में मोहम्मद अहमद खान के साथ हुई थी जोकि पेशे से वकील थे।
सन 1946 में मोहम्मद अहमद खान दूसरी शादी करते है हलीबा बेगम से।
1975 में लड़ाई झगड़ों के कारण शाह बनो को मोहम्मद अहमद खान ने घर से निकाल दिया और कुछ दिनों तक 200/माह गुजरा भत्ता देते रहे पर कुछ माह बाद गुजारा भत्ता देना भी बंद कर दिया।
इसके खिलाफ 1978 में शाहबानो इंदौर की अदालत में पेश हो गईं और कम-से-कम 500 गुजरा भत्ता मांगने के लिए केस लगा दिया परन्तु अदालत का फैसला आने से पहले ही मोहम्मद अहमद खान ने 6 नवम्बर 1978 को उनको तलाक दे दिया और 3000 रूपए मेहर की रकम दे दी और शाह बनो से अपना पीछा छुड़वा लिया।
सन 1979 को निचली अदालत इस मामले में फैसला देते हुए 25 रूपए प्रति माह शाह बानो को मोहम्मद अहमद खान के द्वारा देने को कहती है जबकि मोहम्मद अहमद खान की उस समय की मासिक आय 5000 रूपए लगभग थी।
यह ध्यान रखने वाली बात है कि कोर्ट ने यह फैसला Crpc की धरा 125 के तहत दिया था।
शाह बानो 1980 में इस केस को लेकर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट चले जाती हैं और केस जीत जाती हैं जिसके तहत कोर्ट मोहम्मद अहमद खान को 179 रूपए 20 पैसे प्रति माह शाह बनो को देने का आदेश देती है और यह फैसला भी Crpc की धारा 125 के तहत दिया गया था।

इस मामले को लेकर मोहम्मद अहमद खान सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाते हैं और मुस्लिम पर्सनल लॉ का हवाला देते हुए कहते हैं कि मेहर की रकम देने के पश्चात मुस्लिम पुरुष तलाकशुदा महिला को कोई भी राशि देने के लिए बाध्य नहीं होता है।

अब यह मामला थोड़ा उलझ गया था क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला लेना में दिक्कत हो रही थी कि इस केस को Crpc की धारा 125 के तहत मान्य किया जाए या फिर मुस्लिम परसनल लॉ के तहत फैसला सुनाया जाए।

काफी दलीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट इस मामले में 23 अप्रैल 1985 में शाह बनो के पक्ष में फैसला देती है और कहती है की

“चूंकि धारा 125 क्रिमिनल लॉ की धारा है, इसलिए वो मुस्लिम पर्सनल लॉ से ऊपर है.”

और शाह बनो केस जीत जाती हैं।
अब यह तो हुई शाह बनो को मिले इन्साफ की कहानी अब यह जानिये की शाह बनो जीता हुआ केस हारती कैसे हैं?

दरअसल सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद मुस्लिम समुदाय इसे खुद पर हमला समझता है और पूरे देश में इसके खिलाफ आंदोलन होने लगता है उस समय भारत के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी जी थे

राजीव गाँधी जी ने अपनी राजनीती चमकाने के लिए और अल्पसंख्यक समुदाय का समर्थन पाने के लिए फ़रवरी 1986 में सदन में “द मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स ऑन डाइवोर्स) एक्ट 1986” पेश किया

नए क़ानून के तहत मुस्लिम महिलाएं धारा 125 के तहत गुज़ारे भत्ते का हक़ नहीं मांग सकती थीं 5 मई 1986 को संसद ने यह बिल को पास भी कर दिया, नया बिल आने के बाद शाह बानो ने अपना केस वापस ले लिया और शाह बनो SC द्वारा जीता हुआ केस हार गई 6 साल बाद 1992 में ब्रेन हेमरेज से उनकी मौत हो गई। 

वीडियो के माध्यम से समझिये शाह बनो के पूरे केस के बारे में।

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